रिस्तों में न आँच आये
सोचकर मैं डर जाती हूँ
अँधेरा हो गया है सर
अब तो मैं घर जाती हूँ
औरों की आज़ादी देख
नदी सी उमड़ जाती हूँ
लोग क्या नहीं कहते
जब मैं सज सँवर जाती हूँ
दूसरों पे भरोसा नहीं अब
अपनों के साथ बाहर जाती हूँ
सब घुरते ही रहते है मुझे
सर से पाँव तक ढक कर जाती हूँ
बाहर जो निकलु मार देंगे
अब न गाँव न ही शहर जाती हूँ
मैं लड़की हूँ क्या करूं?
घर में घुट घुट कर मर जाती हूँ
- मिथिलेश मैकश
छपरा
(2014 की डायरी से)
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